जदयू की एनडीए में वापसी ने बिहार का राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदल दिया है। एनडीए के खेमे में अभी तक बड़ी पार्टी के रूप में सिर्फ भाजपा थी। इसके अलावा हम, लोजपा के दोनों गुट और रालोजद जैसे छोटे दल थे मगर जदयू की एंट्री ने सीटों की बड़ी हिस्सेदारी छीन ली है।
वहीं दूसरी ओर महागठबंधन में जदयू-राजद के होने से कांग्रेस और वामदलों की दावेदारी कमजोर थी मगर अब मैदान खाली है। महागठबंधन इस खाली जगह को भरने के लिए मुकेश सहनी की वीआइपी या ओवैसी की एआइएमआइएम जैसे दलों को अपने साथ जोड़ सकता है। वर्ष 2019 में हुए पिछले लोकसभा चुनाव को देखें तो एनडीए के लिए सीट बंटवारा अधिक मुश्किल नहीं था। लोकसभा की कुल 40 सीटों में भाजपा और जदयू को 17-17 सीटें मिली थीं जबकि लोजपा को छह सीटें दी गई थीं।
एनडीए के लिए भी चुनौती
इस बार जदयू-भाजपा के साथ लोजपा दो खेमे में बंट गई है। अगर छह जीती सीटों पर चिराग और पशुपति पारस वाले दोनों खेमों को मना भी लिया जाए तो जीतन राम मांझी की हम और उपेन्द्र कुशवाहा की रालोजद के लिए सीट निकालने की चुनौती होगी।
हम और रालोजद को एक-एक सीट पिछले लोकसभा चुनाव में हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा महागठबंधन का हिस्सा था। उस समय पार्टी ने तीन सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ा था और तीनों पर हार का सामना करना पड़ा। इस बार दलों की भीड़ में हम को एक सीट से अधिक मिलने की उम्मीद नहीं दिख रही। वह एक सीट भी गया की हो सकती है, जिसपर जीतन राम मांझी या उनके बेटे संतोष कुमार सुमन चुनाव लड़ सकते हैं।
पिछली बार उपेंद्र कुशवाहा के राष्ट्रीय लोक समता पार्टी को महागठबंधन ने पांच सीटें दी थीं। कारण, उनके पास तीन सीटिंग सांसद थे। हालांकि सभी पांच सीटों पर रालोसपा को हार का सामना करना पड़ा था। इस बार उनके दल का नाम राष्ट्रीय लोक जनता दल (रालोजद) है। इस बार कुशवाहा के पास एक भी सांसद नहीं है। ऐसे में दावेदारी पहले से कमजोर है। एनडीए उनको साथ रखना चाहती है। ऐसे में काराकाट की सीट दी जा सकती है।